भोपाल। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी कांग्रेस के भीतर गुटीय सियासत तमाम प्रयास के बाद भी थमने का नाम नहीं ले रही है। 2013 के चुनाव में कांग्रेस कई गुटों में बंटी थी। वरिष्ठ नेता तक एक मंच पर आने में कतराते थे।
2018 के चुनाव से पहले पार्टी ने कमल नाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजा तो उन्होंने सभी वरिष्ठ नेताओं को एक मंच पर लाने का काम किया। इसका लाभ भी पार्टी को मिला और 15 साल बाद कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हुई। हालांकि, यह एकता अधिक समय तक बरकरार नहीं रही और गुटबाजी के चलते हुई उपेक्षा से आहत ज्योतिरादित्य सिंधिया ने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी।
परिणामस्वरूप कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गई और कमल नाथ को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद भी गुटीय सियासत थमने का नाम नहीं ले रही है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव दिग्गज कांग्रेस नेताओं के निशाने पर हैं। जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में उन्हें किनारे किया गया था। अब राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उन्हें मौका न मिल पाने को भी गुटबाजी के नजरिए से ही देखा जा रहा है।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रदेश से कमलेश्वर पटेल को लिया गया। वे भी पिछड़ा वर्ग से आते हैं पर विंध्य के बाहर उनकी कोई पकड़ नहीं है। उनके मुकाबले अरुण यादव का प्रदेश में आधार है। इसी तरह मालवा क्षेत्र में पकड़ रखने वाले उमंग सिंघार भी हाशिए पर हैं। उन्हें भी कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी गई है। कांग्रेस ने मार्च 2020 में सत्ता जाने के बाद सर्वाधिक ध्यान संगठन पर दिया।
कमल नाथ ने मतदान केंद्र स्तर पर कार्यकर्ताओं की टीम तो बनाई पर गुटबाजी को नहीं थाम पाए। जिलों में अब भी गुटबाजी हावी है, जिसके कारण चुनाव की तैयारी भी प्रभावित होती नजर आ रही है।
अरुण यादव केंद्रीय राज्यमंत्री रह चुके हैं। राहुल गांधी ने उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था और चार वर्ष तक संगठन की कमान उन्होंने संभाली। पदयात्रा की और टीम बनाई। कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद किया। इसका लाभ भी पार्टी को 2018 के चुनाव में मिला पर उन्हें अब वो स्थान नहीं मिल रहा है, जिसकी अपेक्षा उनके समर्थक कर रहे हैं। सरकार बनने पर भी उन्हें कोई भूमिका नहीं मिली थी। पहले उन्हें राज्यसभा भेजे जाने की बात चल रही थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में विंध्य अंचल में पार्टी को हुए नुकसान को देखते हुए राजमणि पटेल को आगे किया गया।
पिछड़ा वर्ग से आने वाले पटेल भी कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए। उस समय यादव इस उम्मीद में मन मारकर बैठ गए थे कि आगे कुछ अच्छा होगा। इस बीच मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर उन्होंने प्रश्न उठा दिया और पार्टी की रीति-नीति का हवाला देते हुए कहा कि हाई कमान ही इस पर निर्णय करता है। इसे कमल नाथ और उनके बीच चल रही खींचतान से जोड़कर देखा गया। जब संगठन ने जिला अध्यक्षों की नियुक्ति की तो उनके प्रभाव क्षेत्र वाले जिले खंडवा और बुरहानपुर में उनकी पसंद को दरकिनार कर दिया गया। इसकी शिकायत केंद्रीय संगठन तक पहुंची।
अंतत: तत्कालीन प्रदेश प्रभारी जयप्रकाश अग्रवाल ने नियुक्तियों पर रोक लगा दी। इस पूरे घटनाक्रम से गुटबाजी सामने आ गई। यादव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मुलाकात कर अपनी बात रखी। चर्चा है कि उन्हें समाधान का आश्वासन भी मिला पर जब कार्यसमिति घोषित की गई तो उन्हें स्थान नहीं मिला। जबकि, इसकी पूरी संभावना थी क्योंकि केंद्रीय संगठन उन्हें विभिन्न जिम्मेदारियां देता रहा है।
उधर, विंध्य में जिस तरह कमलेश्वर पटेल को आगे बढ़ाया जा रहा है, उसे भी गुटीय राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का विंध्य क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद से वह सक्रिय हैं और घर वापसी कार्यक्रम भी चला चुके हैं। इससे पार्टी भी मानकर चल रही है कि विंध्य क्षेत्र में लाभ होगा।
सिंघार भी हैं गुटबाजी के शिकार
पूर्व मंत्री उमंग सिंघार भी गुटीय राजनीति के शिकार हैं। उनकी पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से बैठती नहीं है। जबकि, केंद्रीय संगठन उन्हें झारखंड और गुजरात चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका दे चुका है। मालवा अंचल के आदिवासी क्षेत्रों में उनकी पकड़ है। पिछले दिनों उन्होंने आदिवासी मुख्यमंत्री की बात भी उठाई थी।
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