ग्वालियर। शहर से बीस किलोमीटर दूर सातऊ में मां शीतला का मंदिर है। मान्यता है कि मां के दर्शन करने मात्र से लोगों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है। संतान प्राप्ति के लिए लोग मां की आराधना करते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर लोग डलिया का झूला डालते है। मंदिर पर हर सोमवार को विशाल भंडारा होता है। पूर्व में यहां पर आकर डकैत मां की आराधना करते थे और मनोकामना पूर्ण होने पर घंटा चढ़ाते थे। आज यहां पर भव्य मंदिर बना हुआ है। डकैत समस्या समाप्त हो चुकी है। नवरात्र के नौ दिन श्रद्धालुओं की जमकर भीड़ रहती है और यहां पर नौ दिन का मेला लगता है।
सात पहाड़ियों के बीच विराजमान मां शीतला
सातऊ की शीतला मंदिर अंचल के गुर्जर समाज की अगाध श्रद्धा का केन्द्र है।1726 में भक्त के साथ कन्या रुप में आईं थी मां शीतलासातऊ गांव की सात पहाड़ियों के बीच विराजमान मां शीतला की कहानी बड़ी ही अद्भुत है। लोग बताते हैं घना जंगल होने के कारण यहां मंदिर के आसपास खतरनाक जंगली जानवर अक्सर मिल जाया करते थे, लेकिन कभी भक्तों पर हमला नहीं किया।
ये है माता के विराजमान होने की पूरी कहानी
असल में 1669 विक्रम संवत (सन् 1726 ई) की बात है, जब शीतला माता मंदिर के पास सांतऊ गांव में गजाधर जो शीतला माता के पहले भक्त थे, वे प्रति दिन यहां से गोहद के खरौआ गांव के देवी मंदिर में गाय के दूध से माता का अभिषेक करने जाया करते थे। गजाधर की भक्ति से प्रसन्न होकर देवी मां कन्या रूप में प्रकट हुईं और गजाधर से अपने गांव ले जाने को कहा पर गजाधर के पास मां को ले जाने कोई साधन नहीं था।
गजाधर ने माता से कहा कि मैं आपको पैदल कैसे लेजा सकता हूं। तो माता ने कहा तुम अपने गांव जाओ और वहां जाकर मेरा ध्यान करना में वहां प्रकट हो जाऊंगी। गजाधर ने ऐसा ही किया और माता रानी प्रकट हो गईं, तब गजाधर ने माता से वहीं रुकने को कहा। तब माता सांतऊ गांव से जंगल में जाकर विराजमान हो गईं, जहां गजाधर ने माता के मंदिर का निर्माण कराया, तब से महंत गजाधर के वंशज इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं।
शीतला माता से जुड़ी एक पौराणिक कथा
नवरात्रि के दिनों में यहां मेले का आयोजन होता है। इस दौरान यहां दूर-दूर से माता के भक्त पैदल चलकर दर्शन करने आते हैं। देवी शक्ति का रूप है शीतला माता स्कंद पुराण में शीतला माता से जुड़ी एक पौराणिक कथा का वर्णन मिलता है, जिसमें बताया गया है कि शीतला देवी का जन्म ब्रह्माजी से हुआ था। शीतला माता को भगवान शिव की अर्धांगिनी शक्ति का ही स्वरूप माना जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, देवलोक से देवी शीतला अपने हाथ में दाल के दाने लेकर भगवान शिव के पसीने से बने ज्वरासुर के साथ धरती लोक पर राजा विराट के राज्य में रहने आई थीं लेकिन राजा विराट ने देवी शीतला को राज्य में रहने से मना कर दिया। राजा के इस व्यवहार से देवी शीतला क्रोधित हो गई। शीतला माता के क्रोध की अग्नि से राजा की प्रजा के लोगों की त्वचा पर लाल लाल दाने हो गए। लोगों की त्वचा गर्मी से जलने लगी थी। तब राजा विराट ने अपनी गलती पर माफी मांगी। इसके बाद राजा ने देवी शीतला को कच्चा दूध और ठंडी लस्सी का भोग लगाया, तब माता शीतला का क्रोध शांत हुआ। तब से माता देवी को ठंडे पकवानों का भोग लगाने की परंपरा चली आ रही है।
अनूठा है माता का रूप
स्कंद पुराण के अनुसार, देवी शीतला का रूप अनूठा है। देवी शीतला का वाहन गधा है। देवी शीतला अपने हाथ के कलश में शीतल पेय, दाल के दाने और रोगानुनाशक जल रखती हैं, तो दूसरे हाथ में झाड़ू और नीम के पत्ते रखती हैं। चौसठ रोगों के देवता, घेंटूकर्ण त्वचा रोग के देवता, हैजे की देवी और ज्वारासुर ज्वर का दैत्य इनके साथी होते हैं। स्कंदपुराण के अनुसार, देवी शीतला के पूजा स्तोत्र शीतलाष्टक की रचना स्वयं भगवान शिव ने की थी।
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