सीहोर। आजादी की लड़ाई की शुरुआत 1857 से मानी जाती है, पर सीहोर में आजादी की लड़ाई इसके 33 वर्ष पहले से शुरू हो चुकी थी। इसकी शुरुआत 1824 में हुई और जब देश आजाद हुआ। उसके बाद भी सीहोरवासी आजादी के लिए लड़ते रहे। सीहोर की लड़ाई खत्म हुई 1 जून 1949 को। इस तरह 1824 से लेकर 1949 तक सीहोर को आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ा। सीहोर ने आजादी की लड़ाई तीन चरणों में लड़ी।
पहला चरण
जब अंग्रेज भारत भर में संधियां कर चुके थे, तब सीहोर में विद्रोह की शुरुआत हुई। 1818 में अंतिम एंग्लों-मराठा युद्ध लड़ा गया। इसके साथ ही पूरे मध्य भारत और लगभग पूरे भारत पर अंग्रेजों ने कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों ने शुरुआत में संधियां की थी, लेकिन फिर अंग्रेज पूरी रियासतें हथियाना चाहते थे, जिसके लिए वो बहाने खोजते थे।
अंग्रेजों ने नरसिंहगढ़ के राजकुमार के खिलाफ भी षड्यंत्र रचा, ताकि नरसिंहगंढ को हथिया सकें। नरसिंहगढ़ के युवराज कुंवर चैनसिंह पर उनके ही एक खजांची रूपराम बोहरा की हत्या का आरोप था। जिसके साक्ष्य न होने पर भी उन्हें अंग्रेज सजा सुनाकर काशी या दिल्ली भेजना चाहते थे। जिसका विरोध कुंवर चैनसिंह ने किया। उनके मामले की सुनवाई के लिए उनहें सीहोर बुलाया गया।
चैनसिंह ने 1824 में दिया बलिदान
1818 में हुई संधियों के हिसाब से सीहोर, भोपाल, राजगढ़, नरसिंहगढ़ और खिलचीपुर राज्य के राजनीतिक मामलों की सुनवाई के लिए सीहोर में पालिटिकल एजेंट नियुक्त किया गया था। जो मामले की सुनवाई कर रहे थे। जब कुंवर चैनसिंह अंग्रेजों की मंशा समझ गए तो उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़ा और उन्होंने 24 जुलाई 1824 को बलिदान दिया। ये युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के लिए लड़ा गया क्षेत्र का पहला युद्ध था जो चिंगारी की तरह था और बाद में ये एक मशाल बना जिससे लपटे निकली।
दूसरा चरण 1857
1857 की क्रांति में एक साथ 356 क्रांतिकारियों ने शहादत दी थी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1857 की क्रांति को भारतीय इतिहास में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में देखा जाता है। मेरठ से 10 मई 1857 को सैनिक विद्रोह के रूप में शुरु हुई इस क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था।
10 मई 1857 को मेरठ की क्रांति की ज्वाला सुलग रही थी। मेवाड़ उत्तर भारत से होती हुई क्रांतिकारी चपातियां 13 जून 1857 को सीहोर और ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंच गई थी। एक अगस्त 1857 को छावनी के सैनिकों को नए कारतूस दिए गए। इन कारतूसों में सुअर और गाय की चर्बी लगी हुई थी। जांच में सुअर और गाय की चर्बी के उपयोग की बात सामने आने पर सैनिकों में आक्रोश और बढ़ गया।
सीहोर के सैनिकों ने जलाया अंग्रेजों का झंडा
सीहोर छावनी के सैनिकों ने सीहोर कान्टिनेंट पर लगा अंग्रेजों का झंडा उतार कर जला दिया और महावीर कोठ और वलीशाह के संयुक्त नेतृत्व में स्वतंत्र सिपाही बहादुर सरकार का ऐलान किया।
इस सरकार का दमन करने के लिए रानी लक्ष्मी बाई का दमन करने वाले जनरल ह्यूरोज को सीहोर भेजा गया। सीहोर में जनरल ह्यूरोज के आदेश पर 14 अगस्त 1858 को सभी 356 क्रांतिकारियों को जेल से निकालकर सीवन नदी के किनारे सैकड़ाखेड़ी चांदमारी मैदान में लाया गया। यहां इन सभी क्रांतिकारियों को एक साथ गोलियों से भून दिया गया था।
जनरल ह्यूरोज ने इन क्रांतिकारियों के शव पेड़ों पर लटकाने के आदेश दिए जिसके बाद शवों को पेड़ों पर लटकाकर छोड़ दिया गया था। दो दिन बाद आसपास के ग्रामवासियों ने इन क्रांतिकारियों के शवों को पेड़ों से उतारकर इसी मैदान में दफनाया था। इस कांड को मालवा का जलियावाला बाग कहा जाता है।
तीसरा चरण- आजादी के बाद आजादी की लड़ाई
देश 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया था, लेकिन आजादी मिलने के 659 दिन बाद 1 जून 1949 को भोपाल में तिरंगा झंडा फहराया गया। भोपाल रियासत के भारत गणराज्य के विलय में लगभग दो साल का समय इसलिए लगा, क्योंकि भोपाल नवाब हमीदुल्ला खां इसे स्वतंत्र रियासत के रूप में रखना चाहते थे। साथ ही हैदराबाद निजाम उन्हें पाकिस्तान में विलय के लिए प्रेरित कर रहे थे जो कि भौगोलिक दृष्टि से असंभव था।
आजादी के इतने समय बाद भी भोपाल रियासत का विलय न होने से जनता में भारी आक्रोश था। यह आक्रोश विलीनीकरण आंदोलन में परिवर्तित हो गया, जिसने आगे जाकर उग्र रूप ले लिया। भोपाल नवाब ने विलीनीकरण से पहले यहां हिंदू महासभा के साथ मिलकर सरकार भी बना ली थी। जिसके पहले प्रधानमंत्री लाड़कुई के चतुरनारायण मालवीय थे, लेकिन जब उन्हें अहसास हुआ कि भोपाल नवाब उनके सहारे भोपाल के विलीनीकरण को रोक रहे हैं तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और वे आंदोलन में शामिल हो गए। वे इछावर में इस आंदोलन के लिए आयोजित बैठक में भी शामिल हुए।
इछावर से हुई आंदोलन की शुरूआत
भोपाल रियासत के भारत संघ में विलय के लिए चल रहे विलीनीकरण आंदोलन की शुरुआत सीहोर के इछावर से हुई थी। विलीनीकरण आंदोलन को संचालित करने के लिए जनवरी 1948 में प्रजा मंडल की स्थापना की गई। इछावर के ही मास्टर लालसिंह ठाकुर इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे। इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रजामंडल ने किसान नामक पत्र भी निकाला था। इस पत्र के संपादक मास्टर लालसिंह ठाकुर थे। पंडित हरिनारायाण शर्मा का घर इस आंदोलन की प्रमुख गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था।
1 जून 1949 को फहराया तिरंगा
विलीनीकरण के लिए पहली आमसभा इछावर के पुरानी तहसील स्थित चौक मैदान में हुई थी। इस पहली आमसभा में मास्टर लालसिंह ठाकुर, पंडित चतुरनारायण मालवीय, शाकिर अली खां, मौलाना तरजी मशरिकी, कुद्दूसी सेवाई सहित अनेक नेताओं संबोधित किया था। नवाबी शासन ने आंदोलन को दबाने का पूरा प्रयास किया। आंदोलनकारियों पर लाठियां-गोलियां चलवाईं गईं। आंदोलन जारी रहा और भोपाल रियासत का 1 जून 1949 को भारत गणराज्य में विलय हो गया और भारत की आजादी के 659 दिन बाद भोपाल में तिरंगा झंडा फहाराया गया।
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